भारत की कृषि का सामान्य ज्ञान

India Agriculture GK | भारत की कृषि का सामान्य

1. भारत के कुल क्षेत्रफल के कितने प्रतिशत भाग पर खेती होती है ?
►- 51 प्रतिशत

2. भारत में कितने प्रतिशत भाग पर चारागाह है ?
►- 4 प्रतिशत

3. वन से भरी भूमि का प्रतिशत कितना है ?
►- 21 प्रतिशत

4. बंजर भूमि तथा बिना उपयोग की भूमि का प्रतिशत भारत में कितना है ?
►- 24 प्रतिशत

5. नकदी फसल किसे कहते हैं ?
►- वह फसल जो व्यापार के उद्देश्य से किसानों द्वारा की जाती है । जैसे- कपास, गन्ना, तंबाकू, जूट इत्यादि ।




6. रबी की फसल किसे कहते हैं ?
►- यह फसल अक्टूबर-नवंबर में बोई जाती है । मार्च-अप्रैल में काटी जाती है । जैसे- गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसों, आलू, राई इत्यादि ।

7. खरीफ की फसल किसे कहते हैं ?
►- यह फसल जून-जुलाई में बोई जाती है और नवंबर-दिसंबर में काट ली जाती है । जैसे- धान, गन्ना, तिलहन, कपास, मक्का, तिल, ज्वार, बाजरा इत्यादि ।

8. जायद फसल का क्या अर्थ है ?
►- यह मई-जून में बोई जाती है और जुलाई-अगस्त में काट ली जाती है । जैसे- राई, उड़द, मूंग, तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, खीरा इत्यादि ।

9. झूम खेती क्या है ?
►- इसमें जंगलों को काटकर भूमि साफ की जाती है । इसके बाद इस भूमि पर खेती की जाती है । कुछ दिनों बाद भूमि की उर्वरता समाप्त हो जानने पर यह भूमि छोड़ दी जाती है । इस तरह की खेती पूर्वोत्तर के राज्यों में की जाती है ।

10. देश में कुल कृषि योग्य भूमि के कितने प्रतिशत भाग पर गेहूं की खेती की जाती है ?
►- 15 प्रतिशत

11. हरित क्रांति का सबसे अधिक प्रभाव किस फसल पर पड़ा ?
►- चावल और गेहूं ।

12. भारत में हरित क्रांति लाने का श्रेय किन्हें जाता है ?
►- डॉ. एम एस स्वामीनाथन

13. भारत में हरित क्रांति की शुरुआत कब हुई थी ?
►- 1967-1968 ई. ।

14. तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना कब हुई ?
►- 1986 ई.

15. भारत यूरिया के मामले में कितना आत्मनिर्भर है ?
►- 100 प्रतिशत

16. किस उर्वरक का भारत पूरी तरह आयात करता है ?
►- पोटाशियम

17. केसर का एकमात्र उत्पादक राज्य कौन है ?
►- जम्मू-कश्मीर




18. भारत में सबसे अधिक रेशम कहां पैदा होता है ?
►- कर्नाटक

19. प्राकृतिक रबड़ में भारत का कौन-सा अव्वल है ?
►- केरल (विश्व में चौथा स्थान)

20. नासिक किसकी खेती के लिए प्रसिद्ध है ?
►- अंगूर

21. काफी के उत्पादन के लिए भारत में कौन-सी जगह प्रसिद्ध है ?
►- कुर्ग (नीलगिरी की पहाड़ी)

22. राष्ट्रीय रसदार फल अनुसंधान केंद्र कहां स्थित है ?
►- नागपुर

23. सबसे अधिक तंबाकू उत्पादित करने वाले राज्य कौन-से हैं ?
►- आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु

24. विश्व में किसके उत्पादन में भारत का स्थान पहला है ?
►- आम, चीकू, खट्टा नींबू, केला, नारियल, काली मिर्च, अदरक, हल्दी ।

25. सब्जियों और फलों के उत्पादने में विश्व में भारत का कौन-सा स्थान है ?
►- भारत (पहला स्थान चीन का है।)

26. विश्व में चावल के उत्पादन में चीन के बाद किस देश का स्थान है ?
►- भारत
27. कृषि --------------------विधियों के नाम
सेरीकल्चर
रेशमकीट पालन
एपिकल्चर
मधुमक्खी पालन
पिसीकल्चर
मत्स्य पालन
फ्लोरीकल्चर
फूलों का उत्पादन
विटीकल्चर
अंगूर की खेती
वर्मीकल्चर
केंचुआ पालन
पोमोकल्चर
फलों का उत्पादन
ओलेरीकल्चर
सब्जियों का उत्पादन
हॉर्टीकल्चर
बागवानी
एरोपोर्टिक
हवा में पौधे को उगाना
हाइड्रोपोनिक्स
पानी में पौधों को उगाना


28. कृषि क्रांतियां
हरित क्रांति
खाद्यान्न उत्पादन
श्वेत क्रांति
दुग्ध उत्पादन
नीली क्रांति
मत्स्य उत्पादन
भूरी क्रांति
उर्वरक उत्पादन
रजत क्रांति
अंडा उत्पादन
पीली क्रांति
तिलहन उत्पादन
कृष्ण क्रांति
बायोडीजल उत्पादन
लाल क्रांति
टमाटर/मांस उत्पादन
गुलाबी क्रांति
झींगा मछली उत्पादन
बादामी क्रांति
मासाला उत्पादन
सुनहरी क्रांति
फल उत्पादन
अमृत क्रांति
नदी जोड़ो परियोजनाएं



भारत में कृषि से सम्बंधित क्रांतियाँ

भारत में कृषि से सम्बंधित क्रांतियाँ=



भारत में सबसे पहली क्रांति की शुरुआत 1966-67 में हुई हरित क्रांति से मानी जाती है | इस क्रांति के कारण भारत खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर हो गया| हरित क्रांति में मुख्य योगदान उन्नत किस्म के बीजों का रहा है | इसी क्रांति के बाद भारत में दुग्ध क्रांति, पीली क्रांति, गोल क्रांति नीली क्रांति आदि की शुरुआत हुई और भारत दूध, सरसों, आलू और मत्स्य उत्पादन में आत्म निर्भर हो गया |

आइये विभिन्न क्षेत्रों से जुडी अन्य क्रांतियों के बारे में जानते हैं:
क्रांति का नाम                  क्षेत्र।                       तथ्य

1. हरित क्रांति (Green Revolution)=


खाद्यान्न उत्पादन से सम्बंधित थी |

इसके कारण गेहूं और धान की पैदावार में अच्छी बृद्धि हुई थी |

2. श्वेत क्रांति 


 दुग्ध उत्पादन से सम्बंधित है

इसकी शुरुआत 1964-65 हुई जिसे आगे ‘ऑपरेशन फ्लड’ कहा गया |

3. पीली क्रांति (yellow Revolution)


 खाद्य तेलों और तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए

भारत, तिलहन उत्पादन में आत्म निर्भर बन गया है | 2013-14 में 32.9 मिलियन टन तिलहन का उत्पादन हुआ था |

4. नीली क्रांति (Blue Revolution)


 मत्स्य उत्पादन में बृद्धि के लिए चलाई गयी थी |

2013-14 में भारत में 95.8 लाख टन मछली का उत्पादन हुआ था | भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश बन गया है |

5.  गुलाबी क्रांति (Pink Revolution)


 यह प्याज और झींगा मछली के उत्पादन से सम्बंधित है |

भारत विश्व का सबसे बड़ा झींगा मछली उत्पादक देश बन गया है|

6.  काली क्रांति (Black Revolution)


 पेट्रोलियम/खनिज तेलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए एथेनोल का उत्पादन भी बढाया जायेगा| इसका सम्बन्ध कोयला उत्पादन से भी है|

पेट्रोल में एथेनोल को 10% मिलाकर बायो डीजल बनाने का लक्ष्य है |

7.  धूसर क्रांति (Grey Revolution)


 उर्वरक उत्पादन में बृद्धि का लक्ष्य

इसी क्रांति के कारण देश में 25.5 मिलियन टन उर्वरक की खपत हो रही है |

8.  रजत क्रांति (Silver Revolution)


 भारत में अंडा उत्पादन और मुर्गियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए

भारत की मुर्गी एक वर्ष में 65 अंडे देती है जबकि अमेरिका में 295 अंडे | भारत में आंध्र प्रदेश सबसे बड़ा उत्पादक है |

9.  सुनहरी क्रांति (Golden Revolution)


 इसका सम्बन्ध बागवानी उत्पादन में बृद्धि से है जिसमे फल विशेषकर सेव उत्पादन| इसे शहद उत्पादन से भी जोड़ा जाता है|

भारत में बागवानी उत्पाद GDP में 31% योगदान देता है | भारत सब्जी और फल उत्पादन में विश्व मे दूसरा स्थान रखता है |

10. इन्द्रधनुषी क्रांति


 इसमें हरित, पीली, नीली, लाल, गुलाबी, भूरी, धूसर और अन्य सभी क्रांतियों को साथ लेकर चलने का लक्ष्य है |

जुलाई 2000 में नयी कृषि नीति को लागू किया गया है इसी को इन्द्रधनुषी क्रांति कहा गया है |

11. सदाबहार क्रांति (Rainbow Revolution)


 इसका उद्येश्य देश की मिट्टी को उन्नत बनाना, किसानों को लोन दिलाना, रेन वाटर हार्वेस्टिंग एवं कृषि शोध को बढ़ाना है|

इसके माध्यम से देश को पूरी तरह खाद्यान्न में निर्भर बनाना है|

12. गोल क्रांति (Round Revolution)


 इसका सम्बन्ध देश में आलू के उत्पादन को बढ़ाना है |

भारत, चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा आलू उत्पादक देश है| भारत में सबसे बड़ा आलू उत्पादक उत्तर प्रदेश है|


भारत में विभिन्न क्रांतियों के जनक इस प्रकार हैं"


1. भारत में हरित क्रांति का जनक: M.S. स्वामीनाथन 
2. विश्व में हरित क्रांति का पिता: नार्मन बोरलोग 
3. भारत में नीली क्रांति जनक: अरुण कृष्णन 
4. भारत में श्वेत क्रांति का जनक: डॉ वर्गीज कुरियन
5. भारत में प्रेरित प्रजनन (induced breeding) क्रांति का जनक: हीरा लाल चौधरी 
6. भारत में गुलाबी क्रांति का जनक: दुर्गेश पटेल 
7. भारत में स्वर्णिम क्रांति का जनक: निर्पख तुतेज 
8. भारत में लाल क्रांति का जनक: विशाल तिवारी 
9. भारत में सिल्वर क्रांति का जनक: इंदिरा गाँधी



                              [ ALOK KUMAR ]

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ज्वार की खेती

                                          [ ज्वार / JOWAR ]





*  B.N= SORGHUM BICOLOR 

* FAMILY= GRAMINEAE 

* ORIGIN= AFRICA 

* C.N= 2n=20 

* C4 PLANT






अन्न,चारा और जैव उर्जा के लिए ज्वार की खेती

               ज्वार (सोरघम बाईकलर)  ग्रेमिनी कुल की महत्वपूर्ण फसल है, जिसे अंग्रेजी में सोरघम, तेलगु में जोन्ना, मराठी में ज्वारी तथा कन्नड़ में जोल कहा जाता है। पारंपरिक रूप से खाद्य तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इसकी खेती की जाती है, लेकिन अब यह संभावित जैव-ऊर्जा फसल के रूप में भी उभर रही है । खाद्यान्न फसलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से ज्वार का  भारत में तृतीय स्थान है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में ज्वार सबसे लोकप्रिय फसल हैं। ज्वार की खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में खरीफ एंव रबी दोनों मौसमों में की जाती है। ज्वार की खेती अनाज व चारे के लिये की जाती है। ज्वार के दाने में क्रमशः 10.4, 1.9, 1.6 व 72 प्रतिशत प्रोटीन, वसा, खनिज पदार्थ एंव कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। ज्वार की प्रोटीन में लाइसीन अमीनो अम्ल की मात्रा 1.4 से 2.4 प्रतिशत तक पाई जाती है जो पौष्टिकता की दृष्टि से काफी कम है। इसके दाने में ल्यूसीन अमीनो अम्ल की अधिकता होने के कारण ज्वार खाने वाले लोगों में पैलाग्रा नामक रोग का प्रकोप हो सकता है। ज्वार की विश्¨ष किस्म से स्टार्च तैयार किया जाता है । इसके दानो  से शराब भी तैयार की जाती है । अलकोहल उपलब्ध कराने का भी एक उत्कृष्ट साधन है । हरे चारे के अतिरिक्त ज्वार से साइल्¨ज भी तैयार किया जाता है जिसे पशु बहुत ही चाव से खाते है । ज्वार के पौधों की छोटी  अवस्था में हाइड्रोसायनिक अम्ल नामक जहरीला पदार्थ उत्पन्न होता है। अतः प्रारंभिक अवस्था में इसका चारा पशुओं को नहीं खिलाना चाहिए। ज्वार की फसल कम वर्षा में भी अच्छी उपज दे सकती है। तथा कुछ समय के लिये पानी भरा रहने पर भी सहन कर लेती है।

भारत में  ज्वार की खेती=


 खाद्य, चारा और अब जैव-उर्जा के रूप में इसके बहु-उपयोग के बावजूद, हमारे देश में ज्वार का रकबा 1 9 7 0 में जहाँ 1 8 .6 1 मिलियन हेक्टेयर हुआ करता था, वर्ष 2 0 0 8 की स्थिति में घट कर 7.76 मिलियन हे.रह जाना चिंता का विषय में है. सिचाई सुबिधाओ में विस्तार तथा बाजार मूल्य में गिरावट की वजह से अन्य फसलों जैसे धान, गन्ना, कपास,सोयाबीन,मक्का आदि फसले अधिक आकर्षक और  लाभकारी होने के कारण  ज्वार इन फसलों से प्रतिस्पर्धा में नीचे रह गया। दूसरी तरफ वैज्ञानिक शोध और विकास की वजह से ज्वार की औषत उपज 5 2 2 किलोग्राम से बढकर 9 8 1 होना, इस फसल के उज्जवल भविष्य का सूचक है। भारत में लगभग सभी राज्यों में ज्वार की खेती की जाती है। परन्तु कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती ज्यादा प्रचलित है। भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश , राजस्थान तथा गुजरात ज्वार पैदा करने वाले प्रमुख प्रदेश है। महाराष्ट्र ज्वार के उत्पादन में लगभग 51.68 प्रतिशत भागीदार है। भारत में वर्ष 2007-08 के आकड़ों के अनुसार ज्वार का कुल क्षेत्रफल 7.76 मिलियन हे. जिससे 10.21 क्विंटल  प्रति हे. की दर से 7.93 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया । मध्य प्रदेश में ज्वार की खेती लगभग 0.53 मिलियन हे. में प्रचलित है जिससे 0.47 मिलियन  टन उत्पादन होता है तथा 14.20  क्विंटल  प्रति हे. औसत उपज आती है। छत्तीसगढ़  में ज्वार की खेती सीमित क्षेत्र (7.86 हजार हे.) में होती है  जिससे 1099 किग्रा. प्रति. हे. की दर से 8.64 हजार टन उत्पादन लिया जाता है । राष्ट्रीय औसत उपज से छत्तीसगढ़ में ज्वार की औसत उपज अधिक होना इस बात का प्रमाण हे की प्रदेश की भूमि और जलवायु इसकी खेती के लिए अनुकूल है। जैव-ईधन के रूप में

राज्य सरकार  रतनजोत (जेट्रोफा) की खेती को बढावा दे रही है जिसके उत्साहवर्धक परिणाम अभी तक देखने को नहीं मिल रहे है। इस परियोजना पर सरकार  भारीभरकम धन राशी व्यय क्र चुकी है और नतीजा सिफर
रहा है. रतनजोत की जगह यदि जुआर की खेती को बढावा दिया जाए तो न केवल दाना-चारा का उत्पादन बढेगा वल्कि जैव-उर्जा (बायोडीजल ) उत्पादन के लिए भी बेहतर विकल्प साबित हो सकती है।

* उपयुक्त जलवायु=


    ज्वार उष्ण (गरम) जलवायु की फसल है। इसकी खेती समुद्र तल से लगभग 1000 मी. की ऊँचाई तक की जा सकती है। शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों को ठंडे प्रदेशों में गर्मी की ऋतु में उगाया जा सकता है। उत्तरी भारत में ज्वार की मुख्य फसल खरीफ में ली जाती है जबकि दक्षिणी भारत में यह रबी में उगाई जाती है ।बीज अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 7-10 डि. से. होना चाहिए। पौधों की बढ़वार के लिए 26-30 डि.से. तापक्रम अनुकूल माना गया है। इसकी खेती के लिए 60-100 सेमी. वार्षिक वर्षा उपयुक्त ह¨ती है। ज्वार की फसल में सूखा सहन करने की अधिक क्षमता होती है क्योंकि इसकी जड़े भूमिमें अधिक गहराई तक जाकर जल अवशोषित कर लेती है । इसके अलावा प्रारंभिक अवस्था में ज्वार के पौधों में जड़ों का विकास तने की अपेक्षा अधिक होता है।जिससे पत्तियों की सतह से जल का कुल वाष्पन भी कम होता है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में परागण के समय वर्षा अधिक होने से परागकण बह जाने की सम्भावना रहती है जिससे इन क्षेत्रों में ज्वार की पैदावार कम आती है। यह एक अल्प प्रकाशपेक्षी पौधा है। ज्वार की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन अपेक्षाकृत छोटे होते है।

* भूमि का चयन=


    ज्वार की फसल सभी प्रकार की मृदाओं यथा भारी और  हल्की मिट्टियां, जलोढ, लाल या पीली दुमट और  यहां तक कि रेतीली मिट्टियो में भी उगाई जाती है, परन्तु इसके  लिए उचित जल निकास वाली  भारी मिट्टियां (मटियार दोमट) सर्वोत्तम होती है। इसीलिए पश्चिमी, मध्य और  दक्षिण भारत की काली मिट्टियो  में इसकी खेती बहुत अच्छी होती है ।असिंचित अवस्था में अधिक जल धारण क्षमता वाली मृदाओं में ज्वार की पैदावार अधिक होती है। मध्य प्रदेश में भारी भूमि से लेकर पथरीले भूमि पर इसकी खेती की जाती हैं। छत्तीसगढ़ की भाटा-भर्री भूमिओ में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।  ज्वार की फसल 6.0 से 8.5  पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।

* खेत की तैयारी=


    पिछली फसल के  कट जाने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 बार हैरो या 4-5 बार देशी हल चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए। बोआई से पूर्व पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। मालवा व निमाड़ में ट्रैक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर व बखर से जुताई करके जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाते है। ग्वालियर संभाग में देशी हल या ट्रेक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर से जमीन को भुरभुरी बनाकर पाटा से खेत समतल कर बोआई करते हैं।

* किस्मों का चुनाव=


    ज्वार से अच्छी  उपज के लिए  उन्नतशील  किस्मों का  शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। किस्म का चयन बोआई का समय और क्षेत्र  अनुकूलता के आधार पर करना चाहिए। बीज प्रमाणित संस्थाओं का ही बोये या उन्नत जातियों का स्वयं का बनाया हुआ बीज प्रयोग करें। ज्वार में दो प्रकार की किस्मों के बीज उपलब्ध हैं-संकर एंव उन्नत किस्में। संकर किस्म की बोआई के  लिए प्रतिवर्ष नया प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। उन्नत जातियों का बीज प्रतिवर्ष बदलना नही पड़ता। ज्वार की प्रमुख संकर किस्मों की विशेषताएँ  

1. सी. एस. एच.-5: यह किस्म 105-110 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 33-35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा 90-95 क्विंटल  कडवी का उत्पादन होता है। इसके पौधे 175 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। इसका भुट्टा लम्बा तथा अर्धबंधा होता हैं, दानों का आकार छोटा होता है। यह जाति सम्पूर्ण मध्य प्रदेश के लिये उपयुक्त है।

2. सी. एस. एच -6: यह किस्म 100-105 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 32-34 क्विंटल  तथा कड़वी 80-82 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त किया जा सकता है। इसके पौधे 160-170 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। दानों का आकार छोटा होता है। मिश्रित फसल पद्धति के लिये सबसे उपयुक्त किस्म है। यह सूखा अवरोधी किस्म है।

3. सी. एस. एच -9: यह किस्म 105-110 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। दानों का उत्पादन 36-40 क्विंटल  तथा कड़वी 95-100 क्विंटल  प्रति हे. तक प्राप्त होती है। इसके पौधे 182 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। इसका दाना आकार में थोड़ा बड़ा मोतिया रंग का चमकदार होता है। यह सूखा अवरोधी किस्म है।

4. सी. एस. एच -14: यह किस्म 95-100 दिनों की अवधि में पक कर तैयार हो जाती हैं। इसके दानों का उत्पादन 36 से 40  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर व कड़वी का 85-90  क्विंटल  उत्पादन होता है। इसके पौधे 181 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। यह किस्म कम गहरी भूमि के लिये उपयुक्त है।

5. सी. एस. एच -18: इस किस्म के पकने की अवधि 110 दिन हैं तथा दोनों का उत्पादन 34 हसे 44  क्विंटल/  हेक्टेयर तथा कड़वी का उत्पादन 120 से 130  क्विंटल  है।

* ज्वार की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ=


1. जवाहर ज्वार 741: यह किस्म 110-115 दिनों की अवधि मेें पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 30 से 32 क्विंटल ./हेक्टेयर हैं तथा कड़वी का 110 से 120 क्विंटल ./हे. है। यह हल्की कम गहरी भूमि तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं।

2. जवाहर ज्वार 938: यह किस्म 115-120 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती हैं। इसके दानों का उत्पादन 33-35 क्विंटल /हे. हैं तथा कड़वी का उत्पादन 120-130  क्विंटल  हे. है। छत्तीसगढ़ व म. प्र. हेतु उपयुक्त है।

3. जवाहर ज्वार 1041: यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाने का उत्पादन 33-36 क्विंटल /हे. है तथा कड़वी का उत्पादन 125-135 क्विंटल /हे. तक होता है। यह छत्तीसगढ़ तथा म. प्र. के लिये अनुमोदित है।

4. एस. पी. बी. 1022: यह शीघ्र पकने वाली किस्म है। जो 100 से 105 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 30-32 क्विंटल ./हेक्टेयर है। यह किस्म झाबुआ तथा निमाड़ क्षेत्रों के लिये अधिक उपयुक्त है।

5. सी. एस. व्ही. 1 (स्वर्ण): यह किस्म 100-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 35-40 क्विंटल . है। कड़वी का उत्पादन 115-125 क्विंटल ./हेक्टेयर तक होता है। इसके पौधे 160-170 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं। यह समस्त भारत के लिए उपयुक्त है।

6. सी .एस. व्ही. 15: यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 34-38 क्ंिव. है। कड़वी का उत्पादन 115-125 क्विंटल ./हे. तक होता है। इसके पौधे 220-235 सेमी. के लगभग ऊँचे होते हैं।

7. एस . ए. आर-1: यह किस्म 115-120 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानों का उत्पादन 27-30 क्विंटल ./हेक्टेयर तथा कड़वी का 95-100 हो जाता है। यह जाति अगिया निरोधक है।

देशी ज्वार (विदिशा 60-1): इस किस्म की उपज क्षमता 20-25  क्विंटल  प्रति हेक्टर है ।
सीएसएच-4,5,6 व 9 रबी मौसम के लिए भी उपयुक्त है।

* मीठी ज्वार=

            सभी धान्य फसलों में ज्वार की फसल शुष्क पदार्थ उत्पादन में सब से अधिक दक्ष फसल के रूप में जानी जाती है। तने में शर्करा जमा करने की क्षमता के साथ 70-80 प्रतिशत जैव पदार्थ उत्पादन तथा समुचित मात्रा में दाना उत्पादन क्षमता के कारण मीठी ज्वार एक विशिष्ट स्थान रखती है। सी-4 पौधा होने के कारण मीठी ज्वार औसतन 50 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन शुष्क पदार्थ उत्पादन कर सकती है। इसके अतिरिक्त मीठी ज्वार में विस्तृत ग्राह्यता, सूखे एवं अधिक पानी तथा अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी के प्रति रोधकता पायी जाती है। उपरोक्त खेती योग्य एवं जैव रसायन गुणों के कारण मीठी ज्वार जैव ईंधन के रूप में प्रयोग की जा सकने वाले एक मुख्य एवं आकर्षक स्रोत के रूप में प्रयोग की जा सकती है। ईन्धन के रूप में प्रयुक्त हो सकने योग्य अल्कोहल उत्पादन के अतिरिक्त मीठी ज्वार का प्रयोग गुड़ एवं सीरप उत्पादन में भी किया जा सकता है। मीठी ज्वार में अधिक प्रकाश संश्लेषण क्षमता के कारण इससे 35 से 40 टन हरा हरा तना तथा 1.5-2.5 टन दाना प्राप्त किया जा सकता है। मीठी ज्वार में लगभग 15-17 प्रतिशत किण्वीकरण योग्य शर्करा पायी जाती है। इसके साथ ही, देश में ऐसी गन्ना चीनी मीलें जिनमें पूरे वर्ष मात्र छः माह ही मशीनरी का भली प्रकार प्रयोग हो पाता है, मीठी ज्वार के प्रयोग से उन छः माह भी चलाई जा सकती हैं जब गन्ने की उपलब्धता नहीं होती है। इस प्रकार रोजगार के नये अवसर उपलब्ध हो सकते है। वर्तमान में मीठी ज्वार को भारत में इथेनॉल उत्पादन के लिए अधिक योग्य बनाने हेतु अनुसंधान एवं विकास के स्तर पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है।

मीठे ज्वार की किस्में: एसएसव्ही-53,96,84 है। जैव इधन (इथेनाल उत्पादन) के लिए सर्वोतम किस्म है.

* बीजोपचार=


    बोआई से पूर्व बीज को कवकनाशी रसायनो  से उपचारित करके ही बोना चाहिये जिससे बीज जनित रोगों से बचाव किया जा सके। संकर ज्वार का बीज पहले से ही उपचारित होता है, अतएव उसे फिर से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं पडती। अन्य किस्मो के  बीज को  बोने से पूर्व  थायरम  2.5-3 ग्राम  प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। दीमक के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरपायरीफास 25 मिली. दवा प्रति किलो बीज  की दर से शोधित करना चाहिए।

* बोआई का समय=


    मक्का की भाति ज्वार की खेती शीत ऋतु को छोड़कर वर्ष  की जा सकती है। खरीफ में  बुआई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय उपयुक्त रहता है। समय पर बोनी करने से, तना छेदक मक्खी का प्रकोप कम होता है। जून के  अन्तिम सप्ताह से पूर्व बोआई करना उचित नहीं रहता है, क्योकि इस फसल में फूल आते समय अधिक वर्षा  होने  की संभावना रहती है जिसके  फलस्वरूप फूलो  से पराग कणो  के  बह जाने का भय रहता है और  ज्वार के  भुट्टो  में पूर्ण रूप से  दाने नहीं भरते । महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश में ज्वार की खेती रबी(अक्टूबर-नवम्बर) में भी की जाती है।छत्तीसगढ़ में भी सिंचित क्षेत्रो में ज्वार की 2 -3  फासले आसानी से ली जा सकती है।

* बीज एंव बोआई=


    सही पौध संख्या अच्छी उपज लेने के लिए आवश्यक है। देशी जातियों की पौध संख्या 90,000 प्रतिहेक्टेयर रखते हैं। ज्वार की उन्नत तथा संकर जातियों के लिए 150,000 प्रति हेक्टेयर पौध संख्या की अनुशंसा की जाती है। इसके लिये 45 सेमी, कतारों की दूरी तथा पौधों से पौधों की दूरी 12-15 सेमी. रखना चाहिये। स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता वाला 10-12 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर बोना पर्याप्त होता है। संकर किस्मो में कब बीज (7 -8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) लगता है। ज्वार की बोआई हमेशा पंक्तियों में ही करना चाहिए। पंक्ति में बोआई देशी हल के पीछे कूडों में या नाई द्वारा या फिर सीड ड्रिल से की जा सकती है। बीज 3-4 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। यह देखा गया है कि ज्यादा गहराई पर बोये गये बीज के बाद तथा अंकुरण से पूर्व वर्षा होने से भूमि की ऊपरी परत सूखने पर कड़ी हो जाती है जिससे बीज जमाव अच्छा नहीं होता है। भूमि में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में उथली बोआई सर्वोत्तम पाई गई है।

    सामान्य तौर पर ज्वार के बीज का अंकुरण 5-6 दिन में हो जाता है। ज्वार में विरलीकरण (घनी  पौधो को निकालना) एक महत्वपूर्ण कार्य है। पौधे-से -पौधे की दूरी 12-15 सेमी. निश्चित करने के लिए विरलीकरण द्वारा फालतू पौधों को निकालते हैं। अंकुरण के बाद 15-20 दिनों में पौध विरलन कार्य करना चाहिए। यदि हल्की वर्षा हो रही हो तो इसी समय रिक्त स्थानों में (जहाँ पौधे न हो) पौध रोपण का कार्य करना चाहिए,जिससे प्रति इकाई इष्टम पौध संख्या स्थापित हो सके।खाद एंव उर्वरक
ज्वार की फसल भूमि से भारी मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। अतः इसकी खेती से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का बहुत ह्रास ह¨ता है । इसकी जडे मिट्टी की ऊपरी सतह से ही अधिक पोषक  तत्व ग्रहण करती है जिससे इस सतह में पोषक  तत्व कम हो  जाते है । इसके  अलावा सेल्युलोज के  जीवाणुओ  द्वारा मिट्टी की नक्षजन को  अनुपयोगी तथा निरर्थक बना दिये जाने के  कारण भी मिट्टी कुछ समय के  लिए शक्तिहीन जैसी ह¨ जाती है । सामान्यतौर  पर यह प्रभाव 1-2 वर्ष  में समाप्त हो  जाता है, परन्तु इसका असर ज्वार के  बाद बोयी जाने वाली फसल पर व्यापक रूप से पडता है ।

 ज्वार की अच्छी उपज के लिए फसल  में खाद एंव उर्वरक का प्रयोग उचित मात्रा में करना आवश्यक रहता है। ज्वार की जो फसल 55-60 क्विंटल ./हेक्टेयर दानों को तथा 100-125 क्विंटल . कड़बी की उपज देती है। वह भूमि से 130-150 किलो नत्रजन, 50-55 स्फुर तथा 100-130 किलो पोटाश की मात्रा ग्रहण कर लेती है। पोषक तत्वों की सही मात्रा के निर्धारण के लिए मिट्टि की जांच कराना आवश्यक है। ज्वार की अच्छी उपज के लिए सिंचित दशा में संकर एंव अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए 100-120 किलो नत्रजन 40-50 किलो स्फुर तथा 20-30 किलो पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। असिंचित दशा में संकर किस्मों के लिए 50-60 किलो नत्रजन 30-40 किलो स्फुर तथा 30-40 किलो पोटाश देना चाहिए। सिंचित दशा में किस्मों के लिए 50: 40: 30 किग्रा. स्फुर तथा 30-40 किलो ग्राम क्रमशः नत्रजन, स्फुर व पोटाश प्रति हे. प्रयोग करना चाहिए। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय बीज के नीचे कूड़ में डालना चाहिए। जब फसल 30-35 दिन की हो जाए तो नत्रजन की शेष मात्रा दें। असिंचित दशा में पूरा नत्रजन स्फुर व पोटाश बोआई के समय कूडों में गहराई पर डालना अच्छा रहता है। जिंक की कमी वाले स्थानों पर 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का प्रयोग पैदावार बढ़ाता है। गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद उपलब्ध होने पर 5-7 टन प्रति हेक्टेयर अंतिम जुताई के समय देना लाभदायक होता है। असिंचित ज्वार में नत्रजन की कुछ मात्रा पत्तियों पर छिड़काव करके भी दी जा सकती है। ज्वार की फसल में पत्तियों पर 3 प्रतिशत यूरिया का घोल 1000 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर उस समय छिड़कें, जब पौधे 5-6 सप्ताह की हो जाएँ। एक छिड़काव से लगभग 13.5 किग्रा. नत्रजन फसल को मिल जाती है।

* सिंचाई एंव जल निकास=


                  ज्वार की खेती असिंचित क्षेत्रों में की जाती है परन्तु इसकी उन्नत किस्मों से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए  सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होना आवश्यक रहता है। बोआई के समय पर्याप्त नमी होने से बीज अंकुरण अच्छा होता है। मानसून में देरी होने से पलेवा देकर बोआई करना श्रेयस्कर रहता है।  अवर्षा की स्थिति में ज्वार में घुटने तक की अवस्था, फसल में बालियाँ निकलते तथा  दाना भरते समय अर्थात् बोआई से क्रमश: 30, 55 और 75 दिन बाद तदनुसार सिंचाई करना लाभकारी पाया गया है। सिंचाई सदैव 50 प्रतिशत उपलब्ध मृदा नमी पर करना चाहिए। ज्वार की फसल को उत्तम जल निकास की आवश्यकता पड़ती है। खेत में जलभराव से फसल को नुकसान होता है। अतः आवश्यकतानुसार बोआई से पूर्व खेत को अच्छी तरह समतल कर इकाई अधिकतम उपज लेने के लिए ज्वार के साथ सोयाबीन, अरहर, लोबिया, या मूँगफली की अंतरवर्तीय फसलें लेना लाभकारी रहता है। ज्वार की दो कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोने से ज्वार की पूरी उपज व सोयाबीन की 6 से 7 क्विंटल  अतिरिक्त उपज प्राप्त होती है। इस प्रकार मूँगफली व अरहर की फसलें लेने से भी अकेले ज्वार की खेती से अधिक लाभ होता है। ज्वार के साथ लोबिया चारे बोने से ज्वार की तुलना में अधिक उपज मिलती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। सोयाबीन, अरहर, मूँगफली से साथ ज्वार के फसल चक्र से ज्वार की उपज तथा भूमि की उर्वरा शक्ति अच्छी होती है। ज्वार के बाद रबी में गेहूँ, सरसों, चना, मटर आदि फसलों को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

* खरपतवार नियंत्रण=


    ज्वार के खेत में वे सभी खरपतवार पाये जाते हैं जो कि खरीफ के मौसम में उगते हैं जैसे मौथा, बनचरी, दूब, मकरा, कोदो, बदरा-बन्दरी, दूब आदि। फसल की प्रारंभिक अवस्था में इनका प्रकोप अधिक रहता है। इनकी रोकथाम हेतु प्रथम फसल की 15-20 दिन की अवस्था में कुल्पा या डोरा चलाएँ तथा आवश्यकतानुसार निंदाई करे तथा दूसरी बार 30 से 35 दिन बाद पुनः कुल्पा चलाएँ तथा निंदाई करें। यदि संभव हो तो कुल्पे के दांते में रस्सी बाँधकर पौधों पर मिट्टि चढ़ाएँ। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु एट्राजीन 0.5 से 1 किलो प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करें। छिड़काव करते समय मिट्टि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। खेत में चोड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का अधिक प्रकोप होने पर, 2,4-डी (सोडियम लवण) की 1.0-0.5 किग्रा. प्रति हे. मात्रा को 600-800 ली. पानी में घोलकर बोने के 25-30 दिन बाद छिड़काव चाहिए।

* फसल की कटाई और गहाई=


    ज्वार की फसल आमतौर से अक्टूबर-नवम्बर में पक कर तैयार हो जाती है। संकर किस्म के तने और पत्तियां भट्टे पक जाने के बाद भी हरे रह जाते हैं। अतः फसल की कटाई के लिए उसके सूखने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ज्वार की देशी किस्में 80-85 दिन व संकर किस्में 120-125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पकने पर भट्टे हरे, सफेद या पीले रंग में बदल जाते हैं।दाना कठोर हो जाता है और उसका रंग हरे से बदलकर सफेद या हल्का पीला हो जाता है। जब दानो में नमी का अंश घटकर 25 प्रतिशत कम हो जाए,तो भुट्टों की कटाई की जा सकती है। हर किस्म के भुट्टे के पकने का समय अलग-अलग होता है। ज्वार के पौधांे की कटाई ढेर लगा लेते हैं।बाद में पौधे से भुट्टे को अलग करके सुरवा (15 प्रतिशत नमी स्तर) लेते हैं। भुट्टों की गहाई बैलों की दायॅ चलाकर मडा़ई यंत्र या थ्रेसर द्वारा की जा सकती है। गहाई के तुरंत बाद पंखे की सहायता से ओसाई कर लेनी चाहिए। शक्ति चालित यंत्रों (थ्रेशर) द्वारा गहाई व ओसाई का कार्य एक साथ हो जाता है। कड़वी को सूखाकर अलग ढेर लगा देते हैं। यह बाद में जानवरों को खिलाने के काम आती है। दानों को सुखाकर भंडारण करना चाहिये। ज्वार की फसल की पेड़ी रखने के लिए फसल की कटाई भूमि की सतह से लगभग 8-10सेमी.ऊपर से की जानी चाहिए। तत्पश्चात् दूसरे दिन सिंचाई करनी चाहिए। पेड़ी वाली फसल में पंक्तियों के बीच 30-40 किग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। पौधों में फूल आते समय व दाना भरते समय एक या दो सिंचाई करना चाहिए। पेड़ी फसल लगभग 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है।

* उपज एंव भण्डारण=


    उन्नत विधि से संकर ज्चार की खेती करने पर औसतन 40-50 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर दाने व 100-125  क्विंटल  सूखी  कड़वी की उपज प्राप्त होती है। वर्षा निर्भर करती है। सामान्यतौर पर इन क्षेत्रों से लगभग 25-30 क्विंटल दाने प्रति हेक्टेयर सूखी कड़वी प्राप्त होती है। ज्वार की देशी किस्मों की उपज 12-20  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। दानों को भंडारित करने के पहलें उन्हें अच्छी तरह धूप में सुखा लेना आवश्यक है। भंडारित किये जाने वाले दानों में नमी का अंश  13 प्रतिशत अधिक नहीं होना चाहिए। ज्वार के 1000 दानों का औसत भार 30-35 ग्राम होता है। ज्वार की मोमी किस्मों से स्टार्च निकाला जाता है।
कटाई उपरान्त तकनीक

ज्वार में पोषक तत्व गेहूं और चावल से कहीं ज्यादा होते हैं। ज्वार की वैश्विक पैदावार सभी अनाजों के उत्पादन में 4.7 फीसदी रहती है। एशिया और अफ्रीका में करोड़ों लोगों के लिए ऊर्जा और प्रोटीन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण फसल है। तमाम गुण होने के बावजूद ज्वार का आटा बनाकर खाने में इस्तेमाल करना थोड़ा कठिन है क्योंकि आटा बनाने के लिए सबसे पहले इसका छिल्का हटाना होता है। इसके बाद ब्रान (दाने के ऊपर एक सफेद पदार्थ की परत) हटानी पड़ती है।





                                                                   [ ALOK KUMAR ]




बाजरा की खेती

                                  [ बाजरा / PEARL MILLET ] 



01.  B.N= PENNISETUM AMERICANUM

02.  FAMILY= GRAMINEAE

03.  ORIGIN= AFRICA

04.  B.N= 2n= 14




* परिचय=

बाजरा की खेती किस प्रकार से होती है, कहाँ-कहाँ होती है?
भारत में बाजरा मुख्य रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवम तमिलनाडु में उगाया जाता है। बाजरा राजस्थान में भारत के कुल क्षेत्र का 50 प्रतिशत तथा 1/3 भाग उत्पादकता का उत्पादन किया जाता है। उत्तर प्रदेश में क्षेत्रफल की द्रष्टी से बाजार का स्थान गेहू, धान तथा मक्का के बाद आता है। कम वर्षा वाले स्थानों के लिए यह एक बहुत ही अच्छी फसल है। 40 से 50 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है । बाजार की खेती मुख्यतः उत्तर प्रदेश में आगरा, बरेली एवम कानपुर मंडलों में अधिकता में की जाती है। सघन पद्धतियों को अपनाकर उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है।

* जलवायु और भूमि=

बाजरा की खेती के लिए किस प्रकार की अनुकूल जलवायु होनी चाहिए और किस प्रकार की भूमि की आवश्यकता पड़ती है?
बाजरा की खेती शुष्क जलवायु अर्थात कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है इसके लिए हल्की या दोमट बलुई मिट्टी उपयुक्त होती है। यह बरसात की फसल है इसके भूमि का जल निकास उत्तम होना चाहिए।

* प्रजातियाँ=

कौन-कौन सी उन्नतशील प्रजातियाँ जिनका इस्तेमाल हमारे किसान भाई करे बताइए?
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उन्नतशील प्रजातियों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए जैसे संकुल प्रजातियों में आई.सी.एम्.बी 155, डब्लू.सी.सी. 75, आई.सी.टी.बी. 8203 एवम राज 171 है। तथा संकर प्रजातियों में पूसा 322, पूसा 23 एवम आई.सी ऍम एच्. 441 आदि है।

* खेत की तैयारी=

बाजार की फसल के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार से करनी चाहिए?
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो-तीन जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से खेत को अच्छी तरह भुरभुरा बनाकर पाटा लगाना चाहिए। आख़िरी जुताई में 100 से 125 कुंतल सड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी के समय ही अच्छे तरह मिला देनी चाहिए।

* बीज बुवाई=

बाजार की खेती में बीज की मात्रा कितनी प्रति हेक्टेयर पड़ती है और बीजों का शोधन हमारे किसान भाई किस प्रकार करे?
बीज की मात्रा 4 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज पड़ता है यदि बीज उपचारित नहीं है तो बोने से पहले एक किलोग्राम बीज को थीरम 2.5 ग्राम से शोधित कर लेना चाहिए।
बाजार की बुवाई का सही समय क्या है और कौन सी विधि हमारे किसान भाई अपनाए?
बाजार की बुवाई मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक कर देना चाहिए। बुवाई 50 सेंटीमीटर लाइन से लाइन की दूरी पर 4 सेंटीमीटर गहराई पर करना चाहिए। बुवाई हर समय हल के पीछे करनी चाहिए। इसकी बुवाई छिटकवा विधि से भी करते है।

* पोषण प्रबंधन=

फसल में खाद और उर्वरको का प्रयोग हमें किस प्रकार करना चाहिए?
100 से 125 कुंतल गोबर की सड़ी खाद खेत की तैयारी के समय आख़िरी जुताई में मिला देना चाहिए। उर्वरको का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। यदि भूमि परीक्षण नहीं उपलब्ध है तो संकर प्रजातियों के लिए 60 से 100 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस एवम 40 किलोग्राम पोटाश तथा देशी या संकुल प्रजातियों के लिए 40 से 50 किलोग्राम नत्रजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस एवं 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करते है। फास्फोरस एवम पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई से पहले बेसल ड्रेसिंग द्वारा तथा शेष आधी नत्रजन की मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में बुवाई के 25 से 30 दिन बाद खड़ी फसल में देना चाहिए।

* जल प्रबंधन=

बाजरा की सिंचाई कब करनी चाहिए और किस प्रकार करनी चाहिए?
वर्षा ऋतू में बुवाई के कारण वर्षा का ही पानी पर्याप्त होता है। लेकिन वर्ष न होने फसल में फूल आने पर एक या दो सिंचाइयां आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। जल निकास का प्रबंधन अति आवश्यक है।

* खरपतवार प्रबंधन=

बाजार में कितनी बार निराई और गुडाई करनी चाहिए साथ ही छटाई यानी थिनिंग कब करनी चाहिए और खरपतवारों का जो नियंत्रण है वो हम किस प्रकार करे?
बाजरा की खेती के लिए निराई-गुडाई का अधिक महत्व है। पहली निराई-गुडाई बुवाई के 15 से 20 दिन बाद करनी चाहिए दूसरी निराई-गुडाई 35 से 40 दिन बाद आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। निराई-गुडाई करते समय पौधों को छटनी या थिनिंग आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। यदि फसल में पथरचट्टा के आलावा अधिक खरपतवार जमाते है तो बुवाई के एक-दो दिनों के अन्दर लासो 50 ई.सी. या एलाक्लोर 5 लीटर भूमि पर छिडकाव करना चाहिए जिससे खरपतवारों का जमाव ही न हो सके।

* रोग प्रबंधन=

बाजार की फसल में कौन-कौन से रोग लगते है और उन रोगों पर हम किस तरह से नियंत्रण रख सकते है?
बाजार की फसल में रोग लगते है जैसे की बाजार का अर्गट, बाजार का कण्डुआ अवम बाजरा की हरित बाली रोग है। इनके नियंत्रण के लिए बीज शोधन करके बुवाई करनी चाहिए एक ही खेत में लगातार बाजरा की फसल नहीं लेनी चाहिए




                                                                      [ ALOK KUMAR ]

भारतीय फसलें तथा उनका वर्गीकरण




 1. Season Based (ऋतु आधारित)

ख‍रीफ  (Kharif Crops)=


Paddy (धान),  Millet (बाजरा) ,  Maize (मक्‍का),  Cotton (कपास),  Ground nut (मूँगफली),  Sweet potato (शकरकन्‍द),  Black gram (उर्द) ,   Green gram (मूँग) ,  Cowpea (लोबिया),   Sorghum ( ज्‍वार),  Sesame (तिल),  Guar ( ग्‍वार), Jute (जूट),  Sunn (सनई),  Peogenpea (अरहर),  Danch ( ढैंचा),  Sugarcane (गन्‍ना),  Soybean (सोयाबीन),  Okra( भिंण्‍डी)

रबी  (Rabi Crops)=


Wheat (गेहूँ),  Barley (जौं),  Gram (चना),  Mustard (सरसों),  Peas (मटर),  Brsim ( बरसीम),  Alfalfa (रिजका),  Lentil  (मसूर),  Potato (आलू),  Tobacco (तम्‍बाकू),  Lahi( लाही),   Jni ( जंई)

जायद  (Zaid Crops)=

Pumpkin (कद्दू),  Muskmelon (खरबूजा),  Watermelon ( तरबूज),   Bottle gourd ( लौकी),  Sponge gourd (तोरई),    Green gram (मूँग),  Cucumber( खीरा),  Chilly (मीर्च),   Tomato (टमाटर),   Sunflower(सूरजमूखी)

2. Life cycle based (जीवनचक्र आधारित)-

एकवर्षीय  (Annuals)=


धान,  गेहूँ , चना,  ढैंचा,  बाजरा,  मूँग, कपास,  मूँगफली, सरसों, आलू,  शकरकन्‍द, कद्दू, लौकी,  सोयाबीन

द्विवर्षीय  (Biennials)=


चुक्कन्‍दर,  प्‍याज

बहूवर्षीय  (Perennials)=


नेपियर घास,  रिजका, फलवाली फसलें 

3. Economic based (आर्थिक आधारित)-

अन्‍न या धान्‍य फसलें  (Cereals)=


धान,  गेहूँ ,  जौं,  चना,  मक्‍का,  ज्‍वार,  बाजरा, 

मसाले वाली फसलें  (Spices)=


अदरक,  पुदीना,  प्‍याज,  लहसुन,  मिर्च,  धनिया,  अजवाइन,  जीरा,  सौफ,  हल्‍दी,  कालीमिर्च,  इलायची और तेजपात

रेशेदार फसलें  (Fibres)=


जूट,  कपास,  सनई,  पटसन,  ढेंचा

चारा फसलें  (Fodders)=


बरसीम , लूसर्न (रिजका),  नैपियर घास,   लोबिया,  ज्‍वार

फलदार फसलें  (Fruits)=


आम,  अमरूद,   नींबू, लिचि,  केला,   पपीता, सेब,  नाशपाती,  

औषधीय फसलें  (Medicinals)=


पोदीना,   मेंथा,  अदरक,  हल्‍दी,   और  तुलसी

तिलहनी फसलें  (Oilseeds)=


सरसों,  अरंडी,  तिल,  मूँगफली,  सूरजमूखी,  अलसी,  कुसुम,  तोरिया,  सोयाबीन  और  राई

दलहनी फसलें  (Pulses)=


चना,  उर्द,  मूँग,  मटर,  मसूर,  अरहर,  मूँगफली,  सोयाबीन

जड एवं कन्‍द  (Roots & Tubers)=


आलू,  शकरकन्‍द,  अदरक,  गाजर,  मूली,  अरबी,  रतालू,  टेपियोका,  शलजम

उद्दीपक  (Stimulants)=


तमबाकू,  पोस्‍त,  चाय,  कॉफी,  धतूरा,  भांग

शर्करा  (Sugar)=


चुकन्‍दर, गन्‍ना
Special use based (विशेष उपयोग आधारित)

अन्‍तर्वती फसले (Catch Crops)=


उर्द,  मूँग, चीना,  लाही,  सांवा,  आलू

नकदी फसलें  (Cash Crops)=


गन्‍ना,  आलू,  तम्‍बाकू,  कपास ,  मिर्च,  चाय,  काफी,

मृदा रदक्षक फसलें  (Cover Crops)=


मूँगफली,  मूँग,  उर्द,  शकरकन्‍द,  बरसीम,  लूसर्न (रिजका)

हरी खाद  (Green Manure)=


मूँग,  सनई,  बरसीम,  ढैचां,  मोठ,  मसूर, ग्‍वार,  मक्‍का,  लोबिया,  बाजरा




                                                                            [ ALOK KUMAR ]

PRODACTIN IN 2016-17

                              [ PRODACTION ]



भारत में कृषिगत उत्पादन (मिलियन टन में)
फसल2014-15 (अंतिम अनुमान)2015-162016-17
(तृतीय अ. अनुमान)(अंतिम अनुमान)(लक्ष्य)(तृतीय अ. अनुमान)
चावल105.48103.36104.41108.5109.15
गेहूं86.5394.0492.2996.597.44
ज्वार5.454.594.2464.74
बाजरा9.188.258.079.59.86
मक्का24.1721.0222.5724.526.14
रागी2.061.861.8221.43
छोटे अनाज0.390.430.390.50.44
जौ1.611.621.441.851.79
मोटे अनाज42.8637.7838.5244.3544.39
कुल अनाज234.87235.17235.22249.35250.98
अरहर2.812.62.563.624.6
चना7.337.487.069.69.06
उड़द1.961.881.952.152.93
मूंग1.51.591.591.872.07
अन्य खरीफ दालें0.770.710.720.960.83
अन्य रबी दालें2.772.82.472.552.9
कुल दालें17.1517.0616.3520.7522.4
कुल खाद्यान्न252.02252.23251.57270.1273.38
कुल नौ तिलहन27.5125.925.253532.52
सोयाबीन10.378.918.5713.6114
मूंगफली7.46.896.738.57.65
रेपसीड और सरसों6.286.866.88.57.98
अन्य तिलहन3.443.243.154.392.88
गन्ना362.33346.72348.45355306.02
कपास #348.05305.24300.05360325.76
जूट एवं मेस्ता ##111.26104.59105.24117102.72



                              [ ALOK KUMAR ]